अखिल भारतीय पल्लीवाल जैन महासभा
किसी भी समाज एवं जाती की उन्नति और विकास हेतु संगठन का होना आवश्यक है और संगठन को क्रियाशील रखने के लिये एक ऐसी संस्था का होना परमावश्यक है जो सम्पूर्ण समाज को संरक्षण प्रदान कर सके | इसी आवश्यकता को अनुभव करते हुए समाज को एक सूत्र में बांधने के लिये कई कर्मठ कार्यकार्तओं ने आज से सैकडों वर्ष पूर्व से ही प्रयास प्रारम्भ कर दिये थे |
सर्व प्रथम 11 December 1882 को आगरा के विघालयों में शिक्षण प्राप्त करने वाले कुछ विधार्थियों ने मिल कर पल्लीवाल जैन जाति में फैली हुई फूट, अशिक्षा, घातक असामाजिक प्रथाएं, असंगत रुढियां, होड, दलबंदियां, प्रान्त प्रभेद, भोजन एवं कन्या व्यवहार संबंधी अनुचित प्रतिबंधों को यथा शक्ति दूर करने की दॄष्ट से तथा समाज के आर्थिक विकास के दॄष्टिकोण को समक्ष रख ‘पल्लीवाल धर्म प्रवर्धनी क्लब’ के नाम से एक समिति का गठन किया । क्लब ने एक मासिक पत्र भी निकाला तथा अपनी जाति के विधार्थियों को छात्रवॄत्ति भी देना प्रारम्भ किया । कुछ ही वर्षों में उत्साही एवं होनहार युवकों के प्रयासों से क्लब ने प्रतिनिधि सभा का रुप धारण कर लिया तथा उसको ‘पल्लीवाल जैन महासमिति’ का रुप दे दिया गया जिसने बडे पैमाने पर समाज सुधार के कार्य चालू कर दिये ।
इस क्लब की अंतिम बैठक आगरा की नसिया जी में ज्येष्ठ क्र 7 वि. संवत 1977 को लाला चिरंजी लाल जी जैन के सभापतित्व में हुई जिसमें काफी संख्या में लोग आये | जातीय सुधार संबंधी महत्तवपूर्ण प्रस्ताव यह था किमुरैना ( मध्य भारत ) के पल्लीवाल जैन बंधुओ से कन्या व्यवहार आरम्भ किया जावे | सर्वसम्मति से क्लब को ‘पल्लीवाल जैन कांफ्रेंस का नाम दे दिया गया तथा मास्टर कन्हैया लाल जी को सर्व सम्मति से सभापति चुन लिया गया | इस कांफ्रेंस का द्वितीय अधिवेशन 25-11-1925 कोअछनेरा में हुआ जिसमे समाज मे फ़ैली बुराइयों को समाप्त करने पर जोर दिया गया तथा पं. चिरंजी लाल जी को जतिभुषण की उपाधि दी गई | कांफ्रेन्स का तृतीय अधिवेशन 18 मार्च 1933 को राय साहब कल्याण राम जी की अध्यक्षता में फिरोजाबाद में हुआ जिसमें छीपा पल्लीवाल भाइयों के साथ भोजन और कन्या व्यवहार करने जैसा महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया |
चतुर्थ अधिवेशन गंगापुर निवासी सेठ रामचंद्र जी की अध्यक्षता में 16 अप्रैल 1935 को हिंडौन सिटी में हुआ जिसमें पल्लीवाल जैन जाति के इतिहास पर प्रकाश डाला गया तथा संगठन को मजबूत बनाने पर जोर दिया गया | पंचम अधिवेशन 30 जून 1936 को अलवर में प्रचलित रस्म रिवाजों सम्बन्धी एक पुस्तक प्रकाशित करके घर-घर पहुंचाने का प्रस्ताव पारित हुआ |
इसके पश्चात 1936 में खेड़ली के मुंशीजी श्री भैरिलाल जी (खोह वाले) के सभापतित्व एवं लाला ज्ञान चन्द्र की अध्यक्षता में पल्लीवाल जैन सम्मेलन हुआ | इसके बाद श्री महावीर जी में सेठ गोपी चन्द्र जी पंची वालो की अध्यक्षता में अधिवेशन हुआ जिसमें छीपी पल्लीवाल एवं मुरैना (मध्य-भारत ) के पल्लिवालों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के जो विरोध उत्पन्न हो रहे थे, उनको दूर करने तथा जैसवाल जैनों के साथ कन्या व्यवहार प्रारंभ करने के प्रयास किये गये |
इस प्रकार ‘पल्लीवाल धर्म प्रवर्धनि क्लब’ ने ‘पल्लीवाल जैन महासमिति’ को जन्म दिया और महासमिति ने जाति को एकरूप में बांधने का प्रयास किया | क्लब और समिति के समस्त कार्यकर्त्ता पल्लीवाल जैन जाति के इतिहास में स्मरणीय रहेगे और धन्यवाद के पात्र हैं | कर्मठ कार्यकर्त्ताओं के अभाव में लोगों ने आगे इस और ध्यान देना कम कर दिया और धीरे-धीरे यह महासमिति लुप्त हो गई |
काफी समय के अन्तराल के बाद समाज के सांस्कृतिक , आर्थिक, नैतिक तथा शैक्षणिक विकास के लिये तथा समाज में व्यापक रूप से प्रचलित कुरीतियों को दूर करने के लिये समाज के चिंतनशील समाज सेवियों ने पुन: समाज को संगठित करने के प्रयास प्रारंभ कर दिये | सन् 1963 में कतिपय उत्साही कार्यकर्त्ताओं ने सामाजिक संगठन की दिशा में प्रयास किये तथा “जैन संगम” नामक मासिक पत्रिका प्रारंभ की | सन् 1967 तक इस पत्रिका के माध्यम से सामाजिक जागरण का प्रयास किया गया | अखिल भारतीय स्तर पर जातिगत कल्याण कार्यो को बढावा देने की दृष्टि से पल्लीवाल जैन निधि की स्थापना का प्रयास भी इस संस्था के माध्यम से किया गया | इस कार्यक्रम के साथ जो प्रमुख कार्यकर्त्ता सम्बन्ध थे, उनके नाम हैं -श्री महवीर कोटिया, श्री जुगल किशोर जैन तथा श्री कुंदन लाल कश्मीरिया (जयपुर ) |